Tuesday, September 23, 2008

पगडण्डी

मैंने कभी सपने नहीं देखे
ऊंचे ऊंचे और ऊंचे
सदा जिया,
जीना चाहा,
सहज सतही
सतह को और ऊँचा करती
धरातल को ऊंचा उठाती
केवल मैं ही नहीं
उस धरा-अंश के
आसपास के पलने वाले
छोटे बड़े प्राणी, या
सहभागी भी 
सहभागिता लेकर
चलें साथ सहज
और
जीना सीखें धरातल पर
जो वास्तविक है
जो सच होता है
सहना, बरतना सीख लें
जान जाएं, सहजता से,
बस इतना ही तो,
आज जीवन का सार
पूर्ण संतुष्टि, मैंने पा ली है।

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2 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बहुत उम्दा विचार और बहुत सधी हुई अभिव्यक्ति. और कवितओं का इंतज़ार शुरू हो गया है.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

कनक प्रभाजी आज ही आपके ब्लाग पर आना हुआ, बहुत सुन्दर कविता लिखी है आपने, कई भावों को समेटे हुए।